सिंधु घाटी सभ्यता


सिंधु घाटी सभ्यता का विकास ताम्र पाषाण युग में ही हुआ था, पर इसका विकास अपनी समकालीन सभ्यताओं से कहीं अधिक हुआ । इस काल में भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर पश्चिम में 2500 ई.पू. से 1700 ईं पू. के बीच एक उच्च स्तरीय सभ्यता विकसित हुई जिसकी नगर नियोजन व्यवस्था बहुत उच्च कोटि की थी । लोगो को नालियों तथा सड़को के महत्व का अनुमान था । नगर के सड़क परस्पर समकोण पर काटते थे । नगर आयताकार टुकड़ो में बंट जाता था । एक सार्वजनिक स्नानागार भी मिला है जो यहां के लोगो के धर्मानुष्ठानों में नहाने के लिए बनाया गया होगा । लोग आपस में तथा प्राचीन मेसोपोटामिया तथा फ़ारस से व्यापार भी करते थे ।लोगों का विश्वास प्रतिमा पूजन में था । लिंग पूजा का भी प्रचलन था पर यह निश्चित नहीं था कि यह हिन्दू संस्कृति का विकास क्रम था या उससे मिलती जुलती कोई अलग सभ्यता । कुछ विद्वान इसे द्रविड़ सभ्यता मानते हैं तो कुछ आर्य तो कुछ बाहरी जातियों की सभ्यता ।

सिंधु घाटी सभ्यता(३३००-१७०० ई.पू.) यह हड़प्पा संस्कृति विश्व की प्राचीन नदी घाटी सभ्यताओं में से एक प्रमुख सभ्यता थी। इसका विकास सिंधु नदी के किनारे की घाटियों में मोहनजोदड़ो, कालीबंगा , चन्हुदडो , रन्गपुर् , लोथल् , धौलाविरा , राखीगरी , दैमाबाद , सुत्कन्गेदोर, सुरकोतदा और हड़प्पा में हुआ था। ब्रिटिश काल में हुई खुदाइयों के आधार पर पुरातत्ववेत्ता और इतिहासकारों का अनुमान है कि यह अत्यंत विकसित सभ्यता थी और ये शहर अनेक बार बसे और उजड़े हैं।
हड़प्पा संस्कृति के स्थल
इसे हड़प्पा संस्कृति इसलिए कहा जाता है कि सर्वप्रथम 1924 में आधुनिक पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के हड़प्पा नामक जगह में इस सभ्यता का बारे में पता चला । इस परिपक्व सभ्यता के केन्द्र-स्थल पंजाब तथा सिन्ध में था । तत्पश्चात इसका विस्तार दक्षिण और पूर्व की दिशा में हुआ । इस प्रकार हड़प्पा संस्कृति के अन्तर्गत पंजाब, सिन्ध और बलूचिस्तान के भाग ही नहीं, बल्कि गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सीमान्त भाग भी थे। इसका फैलाव उत्तर में जम्मू से लेकर दक्षिण में नर्मदा के मुहाने तक और पश्चिम में बलूचिस्तान के मकरान समुद्र तट से लेकर उत्तर पूर्व में मेरठ तक था । यह सम्पूर्ण क्षेत्र त्रिभुजाकार है और इसका क्षेत्रफल 12,99,600 वर्ग किलोमीटर है । इस तरह यह क्षेत्र आधुनिक पाकिस्तान से तो बड़ा है ही, प्राचीन मिस्र और मेसोपोटामिया से भी बड़ा है । ईसा पूर्व तीसरी और दूसरी सहस्त्राब्दी में संसार भार में किसी भी सभ्यता का क्षेत्र हड़प्पा संस्कृति से बड़ा नहीं था । अब तक भारतीय उपमहाद्वीप में इस संस्कृति के कुल 1000 स्थलों का पता चल चुका है । इनमें से कुछ आरंभिक अवस्था के हैं तो कुछ परिपक्व अवस्था के और कुछ उत्तरवर्ती अवस्था के । परिपक्व अवस्था वाले कम जगह ही हैं । इनमें से आधे दर्जनों को ही नगर की संज्ञा दी जा सकती है । इनमें से दो नगर बहुत ही महत्वपूर्ण हैं – पंजाब का हड़प्पा तथा सिन्ध का मोहें जो दड़ो (शाब्दिक अर्थ – प्रेतों का टीला) । दोनो ही स्थल पाकिस्तान में हैं । दोनो एक दूसरे से 483 किमी दूर थे और सिंधु नदी द्वारा जुड़े हुए थे । तीसरा नगर मोहें जो दड़ो से 130 किमी दक्षिण में चन्हुदड़ो स्थल पर था तो चौथा नगर गुजरात के खंभात की खाड़ी के उपर लोथल नामक स्थल पर । इसके अतिरिक्त राजस्थान के उत्तरी भाग में कालीबंगां (शाब्दिक अर्थ –काले रंग की चूड़ियां) तथा हरियाणा के हिसार जिले का बनावली । इन सभी स्थलों पर परिपक्व तथा उन्नत हड़प्पा संस्कृति के दर्शन होते हैं । सुतकागेंडोर तथा सुरकोतड़ा के समुद्रतटीय नगरों में भी इस संस्कृति की परिपक्व अवस्था दिखाई देती है । इन दोनों की विशेषता है एक एक नगर दुर्ग का होना । उत्तर ङड़प्पा अवस्था गुजरात के कठियावाड़ प्रायद्वीप में रंगपुर और रोजड़ी स्थलों पर भी पाई गई है ।
नगर योजना
इस सभ्यता की सबसे विशेष बात थी यहां की विकसित नगर निर्माण योजना । हड़प्पा तथा मोहें जो दड़ो दोनो नगरों के अपने दुर्ग थे जहां शासक वर्ग का परिवार रहता था । प्रत्येक नगर में दुर्ग के बाहर एक एक उससे निम्न स्तर का शहर था जहां ईंटों के मकानों में सामान्य लोग रहते थे । इन नगर भवनों के बारे में विशेष बात ये थी कि ये जाल की तरह विन्यस्त थे । यानि सड़के एक दूसरे को समकोण पर काटती थीं और नगर अनेक आयताकार खंडों में विभक्त हो जाता था । ये बात सभी सिन्धु बस्तियों पर लागू होती थीं चाहे वे छोटी हों या बड़ी । हड़प्पा तथा मोहें जो दड़ो के भवन बड़े होते थे । वहां के स्मारक इस बात के प्रमाण हैं कि वहां के शासक मजदूर जुटाने और कर-संग्रह में परम कुशल थे । ईंटों की बड़ी-बड़ी इमारत देख कर सामान्य लोगों को भी यह लगेगा कि ये शासक कितने प्रतापी और प्रतिष्ठावान थे ।
मोहें जो दड़ो का अब तक का सबसे प्रसिद्ध स्थल है विशाल सार्वजनिक स्नानागार, जिसका जलाशय दुर्ग के टीले में है । यह ईंटो के स्थापत्य का एक सुन्दर उदाहरण है । यब 11.88 मीटर लंबा, 7.01 मीटर चौड़ा और 2.43 मीटर गहरा है । दोनो सिरों पर तल तक जाने की सीढ़ियां लगी हैं । बगल में कपड़े बदलने के कमरे हैं । स्नानागार का फर्श पकी ईंटों का बना है । पास के कमरे में एक बड़ा सा कुंआ है जिसका पानी निकाल कर होज़ में डाला जाता था । हौज़ के कोने में एक निर्गम (Outlet) है जिससे पानी बहकर नाले में जाता था । ऐसा माना जाता है कि यह विशाल स्नानागर धर्मानुष्ठान सम्बंधी स्नान के लिए बना होगा जो भारत में पारंपरिक रूप से धार्मिक कार्यों के लिए आवश्यक रहा है । मोहें जो दड़ो की सबसे बड़ा संरचना है – अनाज रखने का कोठार, जो 45.71 मीटर लंबा और 15.23 मीटर चौड़ा है । हड़प्पा के दुर्ग में छः कोठार मिले हैं जो ईंटों के चबूतरे पर दो पांतों में खड़े हैं । हर एक कोठार 15.23 मी. लंबा तथा 6.09 मी. चौड़ा है और नदी के किनारे से कुछेक मीटर की दूरी पर है । इन बारह इकाईयों का तलक्षेत्र लगभग 838.125 वर्ग मी. है जो लगभग उतना ही होता है जितना मोहें जोदड़ो के कोठार का । हड़प्पा के कोठारों के दक्षिण में खुला फर्श है और इसपर दो कतारों में ईंट के वृत्ताकार चबूतरे बने हुए हैं । फर्श की दरारों में गेहूँ और जौ के दाने मिले हैं । इससे प्रतीत होता है कि इन चबूतरों पर फ़सल की दवनी होती थी । हड़प्पा में दो कमरों वाले बैरक भी मिले हैं जो शायद मजदूरों के रहने के लिए बने थे । कालीबंगां में भी नगर के दक्षिण भाग में ईंटों के चबूतरे बने हैं जो शायद कोठारों के लिए बने होंगे । इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि कोठार हड़प्पा संस्कृति के अभिन्न अंग थे ।
हड़प्पा संस्कृति के नगरों में ईंट का इस्तेमाल एक विशेष बात है, क्योंकि इसी समय के मिस्र के भवनों में धूप में सूखी ईंट का ही प्रयोग हुआ था । समकालीन मेसोपेटामिया में पकी ईंटों का प्रयोग मिलता तो है पर इतने बड़े पैमाने पर नहीं जितना सिन्धु घाटी सभ्यता में ।
जलनिकासी की व्यवस्था
मोहें जो दड़ो की जल निकास प्रणाली अद्भुत थी । लगभग हर नगर के हर छोटे या बड़ेमकान में प्रांगण और स्नानागार होता था । कालीबंगां के अनेक घरों में अपने-अपने कुएं थे । घरों का पानी बहकर सड़कों तक आता जहां इनके नीचे मोरियां (नालियां) बनी थीं । अक्सर ये मोरियां ईंटों और पत्थर की सिल्लियों से ढकीं होती थीं । सड़कों की इन मोरियों में नरमोखे भी बने होते थे । सड़कों और मोरियों के अवशेष बनावली में भी मिले हैं ।
कृषि
आज के मुकाबले सिन्धु प्रदेश पूर्व में बहुत ऊपजाऊ था । ईसा-पूर्व चौथी सदी में सिकन्दर के एक इतिदासकार ने कहा था कि सिन्ध इस देश के ऊपजाऊ क्षेत्रों में गिना जाता था । पूर्व काल में प्राकृतिक वनस्पति बहुत थीं जिसके कारण यहां अच्छी वर्षा होती थी । यहां के वनों से ईंटे पकाने और इमारत बनाने के लिए लकड़ी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल में लाई गई जिसके कारण धीरे धीरे वनों का विस्तार सिमटता गया । सिन्धु की उर्वरता का एक कारण सिन्धु नदी से प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ भी थी । गांव की रक्षा के लिए खड़ी पकी ईंट की दीवार इंगित करती है बाढ़ हर साल आती थी । यहां के लोग बाढ़ के उतर जाने के बाद नवम्बर के महीने में बाढ़ वाले मैदानों में बीज बो देते थे और अगली बाढ़ के आने से पहले अप्रील के महीने में गेँहू और जौ की फ़सल काट लेते थे । यहां कोई फावड़ा या फाल तो नहीं मिला है लेकिन कालीबंगां की प्राक्-हड़प्पा सभ्यता के जो कूँट (हलरेखा) मिले हैं उनसे आभास होता है कि राजस्थान में इस काल में हल जोते जाते थे ।
सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग गेंहू, जौ, राई, मटर आदि अनाज पैदा करते थे । वे दो किस्म की गेँहू पैदा करते थे । बनावली में मिला जौ उन्नत किस्म का है । इसके अलावा वे तिल और सरसों भी उपजाते थे । सबसे पहले कपास भी यहीं पैदा की गई । इसी के नाम पर यूनान के लोग इस सिन्डन (Sindon) कहने लगे ।
पशुपालन
हड़प्पा योंतो एक कृषि प्रधान संस्कृति थी पर यहां के लोग पशुपालन भी करते थे । बैल-गाय, भैंस, बकरी, भेंड़ और सूअर पाला जाता था . यहां के लोगों को कूबड़ वाला सांड विशेष प्रिय था । कुत्ते शुरू से ही पालतू जानवरों में से एक थे । बिल्ली भी पाली जाती थी । कुत्ता और बिल्ली दोनों के पैरों के निशान मिले हैं । लोग गधे और ऊंट भी रखते थे और शायद इनपर बोझा ढोते थे । घोड़े के अस्तित्व के संकेत मोहेंजोदड़ो की एक ऊपरी सतह से तथा लोथल में मिले एक संदिग्ध मूर्तिका से मिले हैं । हड़प्पाई लोगों को हाथी तथा गैंडे का ज्ञान था ।
व्यापार
यहां के लोग आपस में पत्थर, धातु शल्क (हड्डी) आदि का व्यापार करते थे । एक बड़े भूभाग में ढेर सारी सील (मृन्मुद्रा), एकरूप लिपि और मानकीकृत माप तौल के प्रमाण मिले हैं । वे चक्के से परिचित थे और संभवतः आजकल के इक्के (रथ) जैसा कोई वाहन प्रयोग करते थे । ये अफ़ग़ानिस्तान और ईरान (फ़ारस) से व्यापार करते थे । उन्होने उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान में एक वाणिज्यिक उपनिवेश स्थापित किया जिससे उन्हें व्यापार में सहूलियत होती थी । बहुत सी हड़प्पाई सील मेसोपोटामिया में मिली हैं जिनसे लगता है कि मेसोपोटामिया से भी उनका व्यापार सम्बंध था । मेसोपोटामिया के अभिलेखों में मेलुहा के साथ व्यापार के प्रमाण मिले हैं साथ ही दो मध्यवर्ती व्यापार केन्द्रों का भी उल्लेख मिलता है – दलमुन और माकन । दिलमुन की पहचान शायद फ़ारस की खाड़ी के बहरीन के की जा सकती है ।
राजनैतिक ढांचा
इतना तो स्पष्ट है कि हड़प्पा की विकसित नगर निर्माण प्रणाली, विशाल सार्वजनिक स्नानागारों का अस्तित्व और विदेशों से व्यापारिक संबंध किसी बड़ी राजनैतिक सत्ता के बिना नहीं हुआ होगा पर इसके पुख्ता प्रमाण नहीं मिले हैं कि यहां के शासक कैसे थे और शासन प्रणाली का स्वरूप क्या था ।
धर्म
हड़प्पा में पकी मिट्टी की स्त्री मूर्तिकाएं भारी संख्या में मिली हैं । एक मूर्ति में स्त्री के गर्भ से निकलता एक पौधा दिखाया गया है । विद्वानों के मत में यह पृथ्वी देवी की प्रतिमा है और इसका निकट संबंध पौधों के जन्म और वृद्धि से रहा होगा । इसलिए मालूम होता है कि यहां के लोग धरती को उर्वरता की देवी समझते थे और इसकी पूजा उसी तरह करते थे जिस तरह मिस्र के लोग नील नदी की देवी आइसिस् की । लेकिन प्राचीन मिस्र की तरह यहां का समाज भी मातृ प्रधान था कि नहीं यह कहना मुश्किल है । कुछ वैदिक सूक्तों में पृथ्वी माता की स्तुति है, किन्तु उनकों कोई प्रमुखता नहीं दी गई है । कालान्तर में ही हिन्दू धर्म में मातृदेवी को उच्च स्थान मिला है । ईसा की छठी सदी और उसके बाद से ही दुर्गा, अम्बा, चंडी आदि देवियों को आराध्य देवियों का स्थान मिला ।
पुरुष देवता
यहां मिले एक सील पर एक पुरुष देवता का चित्र मिला है । उसके सिर पर तीन सींग है और वह योगी की मुद्रा में पद्मासन में बैठा है । उसके चारों ओर एक हाथी, एक गैंडा और एक बाघ है तथा आसन के नीचे एक भैंसा और पांवों के पास दो हिरण हैं । इसकी छवि पौराणिक पशुपति महादेव से मिलती है । यहां पर लिंग पूजा का भी प्रचलन था और कई जगहों पर पत्थरों के बने लिंग तथा योनि पाए गए हैं । ऋग्वेद में लिंग पूजक अनार्य जातियों की चर्चा है ।
यहां के लोग वृक्ष पूजक भी थे । एक मृन्मुद्रा में पीपल की डालों के बीच में विराजमान देवता चित्रित हैं । इस वृक्, की पूजा आजतक जारी है । पशु-पूजा में भी इनका विश्वास था ।
अपने समकालीन मिस्री सभ्यता के विपरीत सिन्धु घाटी सभ्यता में किसी मंदिर का प्रमाण नहीं मिलता है ।
शिल्प और तकनीकी ज्ञान
यद्यपि इस युग के लोग पत्थरों के बहुत सारे औजार तथा उपकरण प्रयोग करते थे पर वे कांसे के निर्माण से भली भींति परिचित थे । तांबे तथा टिन मिलाकर धातुशिल्पी कांस्य का निर्माण करते थे । हंलांकि यहां दोनो में से कोई भी खनिज प्रचुर मात्रा में उपलब्ध नहीं था । सूती कपड़े भी बुने जाते थे । लोग नाव भी बनाते थे । मुद्रा निर्माण, मूर्तिका निर्माण के सात बरतन बनाना भी प्रमुख शिल्प था ।
लिपि
प्राचीन मेसोपोटामिया की तरह यहां के लोगों ने भी लेखन कला का आविष्कार किया था । हड़प्पाई लिपि का पहला नमूना 1853 ईस्वी में मिला था और 1923 में पूरी लिपि प्रकाश में आई परन्तु अब तक पढ़ी नहीं जा सकी है।
माप-तौल
लिपि का ज्ञान हो जाने के कारण निजी सम्पत्ति का लेखा-जोखा आसान हो गया । व्यापार के लिए उन्हें माप तौल की आवश्यकता हुई और उन्होने इसका प्रयोग भी किया । बाट के तरह की कई वस्तुए मिली हैं । उनसे पता चलता है कि तौल में 16 या उसके आवर्तकों (जैसे – 16, 32, 48, 64, 160, 320, 640, 1280 इत्यादि) का उपयोग होता था । दिलचस्प बात ये है कि आधुनिक काल तक भारत में 1 रूपया 16 आने का होता था । 1 किलो में 4 पाव होते थे और हर पाव में 4 कनवां यानि एक किलो में कुल 16 कनवां ।
अवसान
यह सभ्यता मुख्यतः 2500 ई.पू. से 1800 ई. पू. तक रही । ऐसा आभास होता है कि यह सभ्य्ता अपने अंतिम चरण में ह्वासोन्मुख थी । इस समय मकानों में पुरानी ईंटों के प्रयोग कि जानकारी मिलती है । इसके विनाश के कारणों पर विद्वान एकमत नहीं हैं । सिंधु घाटी सभ्यता के अवसान के पीछे विभिन्न तर्क दिये जाते हैं जैसे:
1.बर्बर आक्रमण
2.जलवायु परिवर्तन एवं पारिस्थितिक असंतुलन
3.बाढ तथा भू-तात्विक परिवर्तन
4.महामारी
5.आर्थिक कारण
ऐसा लगता है कि इस सभ्यता के पतन का कोइ एक कारण नहीं था बल्कि विभिन्न कारणों के मेल से ऐसा हुआ ।

पृथ्वीराज चौहान

पृथ्वीराज चौहान का जन्म
सन ११०० ई० में दिल्ली में महाराजा अनंगपाल तोमर का शासन था। उसकी एकलौती संतान उसकी पुत्री कर्पूरी देवी थी। उसको कोई पुत्र नहीं था। कर्पूरी देवी का विवाह अजमेर के महाराज राजपूत राजा सोमेश्वर चौहान के साथ हुआ था। अजमेर के राजा सोमेश्वर और रानी कर्पूरी देवी के यहाँ सन 1149 में एक पुत्र पैदा हुआ। जो आगे चलकर भारतीय इतिहास में महान हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसे दिल्ली के अंतिम हिंदू शासक के रूप मे भी जाना जाता है| इतिहास मे पृथ्वीराज के महोबे के चंदेलों से संघर्ष को आल्हा काव्य मे वर्णित किया गया है| ‌ उसका कन्नौज के शासक जयचंद के साथ भी मुकाबला हुआ बाद मे इसी दुश्मनी की वजह से मुहम्मद गोरी के साथ हुयी दूसरी लड़ाई मे उसकी भारी क्षति हुयी एवं पराजय हुयी|

इनका राज्य राजस्थान और हरियाणा तक था। और उसने मुस्लिम आक्रमणों के खिलाफ राजपूतों को एकीकृत किया।

पृथ्वी राज ने प्रथम युद्ध में सन 1191 में मुस्लिम शासक सुल्तान मुहम्मद शहाबुद्दीन गौरी को हराया। गौरी ने अगले साल दूसरी बार हमला किया और पृथ्वी राज को हराया और सन 1192 में तराइन के द्वितीय युद्ध में कब्जा कर लिया। अब दिल्ली मुसलमान शासकों के नियंत्रण में आ गई। दिल्ली में किला राय पिथौरा भी पिथौरागढ़ के रूप में पृथ्वीराज द्वारा ही बनाया हुआ है।

दिल्ली का उत्तराधिकार
महाराजा अनंगपाल के यहाँ कोई पुत्र नहीं था इसकी चिंता उन्हें दिन रात रहती की उनके बाद दिल्ली का उत्तराधिकार कौन संभालेगा। यही विचार कर उन्होंने अपनी पुत्री के समक्ष पृथ्वीराज को दिल्ली का युवराज बनाने की बात कही। फिर उन्होंने अपने दामाद अजमेर के महाराजा सोमेश्वर से भी इस बारे में विचार-विमर्श किया। राजा सोमेश्वर और रानी कर्पूरी देवी ने इसके लिए अपनी सहमती प्रदान कर दी जिसके फलसवरूप पृथ्वीराज को दिल्ली का युवराज घोषित कर दिया गया। 1166 ई० में दिल्लीपति महाराज अनंगपाल की मृत्यु के बाद पृथ्वीराज को विधि पूर्वक दिल्ली का उत्तरदायित्व सौंप दिया गया।

पृथ्वीराज चौहान और संयोगिता की प्रेमकथा
पृथ्वीराज चौहान और संयोगिता की प्रेमकथा राजस्थान के इतिहास में स्वर्ण से अंकित है। वीर राजपूत जवान पृथ्वीराज चौहान को उसके नाना ने गोद लिया था। वर्षों दिल्ली का शासन सुचारु रूप से चलाने वाले पृथ्वीराज को कन्नौज के महाराज जयचंद की पुत्री संयोगिता भा गई। पहली ही नजर में संयोगिता ने भी अपना सर्वस्व पृथ्वीराज को दे दिया, परन्तु दोनों का मिलन इतना सहज न था। महाराज जयचंद और पृथ्वीराज चौहान में कट्टर दुश्मनी थी।

राजकुमारी संयोगिता का स्वयंवर आयोजित किया गया, जिसमें पृथ्वीराज चौहान को नहीं बुलाया गया तथा उसका अपमान करने हेतु दरबान के स्थान पर उसकी प्रतिमा लगाई गई। ठीक वक्त पर पहुँचकर संयोगिता की सहमति से महाराज पृथ्वीराज ने उसका अपहरण कर लिया और मीलों का सफर एक ही घोड़े पर तय कर अपनी राजधानी पहुँचकर विवाह कर लिया। जयचंद के सिपाही उसका बाल भी बाँका नहीं कर पाए।

मोहम्मद ग़ौरी द्वारा पराजित होने पर उसे बंदी बना कर ग़ौरी अपने साथ ले गया तथा उनकी आँखें गरम सलाखों से जला दी गईं। ग़ौरी ने पृथ्वीराज से अन्तिम ईच्‍छा पूछी तो चंदबरदायी द्वारा, जो कि पृथ्वीराज का अभिन्न सखा था, पृथ्वीराज शब्द भेदी बाण छोड़ने में माहिर सूरमा है इस बारे में बताया एवं ग़ौरी तक इसकी इस कला के प्रदर्शन की बात पहुँचाई। ग़ौरी ने मंजूरी दे दी। प्रदर्शन के दौरान ग़ौरी के शाबास लफ्ज के उद्घोष के साथ ही भरी महफिल में था, उस समय चंद बरदायी ने चार बाँस चौबीस गज अंगुल अष्‍ठ प्रमाण, ता ऊपर सुल्तान है, मत चूको रे चौहान दोहे द्वारा पृथ्वीराज को संकेत दिया जिस पर अंधे पृथ्वीराज ने ग़ौरी को शब्दभेदी बाण से मार गिराया तथा इसके पश्चात अपनी दुर्गति से बचने के लिए दोनों ने एक-दूसरे का वध कर दिया।

अमर प्रेमिका संयोगिता को जब इसकी जानकारी मिली तो वह भी वीरांगना की भाँति सती हो गई। दोनों की दास्तान प्रेमग्रंथ में अमिट अक्षरों से लिखी गई

राजनैतिक नीति
पृथ्वीराज ने अपने समय के विदेशी आक्रमणकारी मुहम्मद गौरी को कई बार पराजित किया। युवा पृथ्वीराज ने आरम्भ से ही साम्राज्य विस्तार की नीति अपनाई। पहले अपने सगे-सम्बन्धियों के विरोध को समाप्त कर उसने राजस्थान के कई छोटे राज्यों को अपने क़ब्ज़े में कर लिया। फिर उसने बुंदेलखण्ड पर चढ़ाई की तथा महोबा के निकट एक युद्ध में चदेलों को पराजित किया। इसी युद्ध में प्रसिद्ध भाइयों, आल्हा और ऊदल ने महोबा को बचाने के लिए अपनी जान दे दी। पृथ्वीराज ने उन्हें पराजित करने के बावजूद उनके राज्य को नहीं हड़पा। इसके बाद उसने गुजरात पर आक्रमण किया, पर गुजरात के शासक 'भीम द्वितीय' ने, जो पहले मुइज्जुद्दीन मुहम्मद को पराजित कर चुका था, पृथ्वीराज को मात दी। इस पराजय से बाध्य होकर पृथ्वीराज को पंजाब तथा गंगा घाटी की ओर मुड़ना पड़ा।

जयचंद्र का विद्वेश
कन्नौज का राजा जयचंद्र पृथ्वीराज की वृद्धि के कारण उससे ईर्ष्या करने लगा था। वह उसका विद्वेषी हो गया था। उन युद्धों से पहिले पृथ्वीराज कई हिन्दू राजाओं से लड़ाइयाँ कर चुका था। चंदेल राजाओं को पराजित करने में उसे अपने कई विख्यात सेनानायकों और वीरों को खोना पड़ा था। जयचंद्र के साथ होने वाले संघर्ष में भी उसके बहुत से वीरों की हानि हुई थी। फिर उन दिनों पृथ्वीराज अपने वृद्ध मन्त्री पर राज्य भार छोड़ कर स्वयं संयोगिता के साथ विलास क्रीड़ा में लगा हुआ था। उन सब कारणों से उसकी सैन्य शक्ति अधिक प्रभावशालिनी नहीं थी, फिर भी उसने गौरी के दाँत खट्टे कर दिये थे।

सं. ११९१ में जब पृथ्वीराज से मुहम्मद गौरी की विशाल सेना का सामना हुआ, तब राजपूत वीरों की विकट मार से मुसलमान सैनिकों के पैर उखड़ गये। स्वयं गौरी भी पृथ्वीराज के अनुज के प्रहार से बुरी तरह घायल हो गया था। यदि उसका खिलजी सेवक उसे घोड़े पर डाल कर युद्ध भूमि से भगाकर न ले जाता, तो वहीं उसके प्राण पखेरू उड़ जाते। उस युद्ध में गौरी की भारी पराजय हुई थी और उसे भीषण हानि उठाकर भारत भूमि से भागना पड़ा था। भारतीय राजा के विरुद्ध युद्ध अभियान में यह उसकी दूसरी बड़ी पराजय थी, जो अन्हिलवाड़ा के युद्ध के बाद सहनी पड़ी थी।

गौरी और पृथ्वीराज का युद्ध
किंवदंतियों के अनुसार गौरी ने 18 बार पृथ्वीराज पर आक्रमण किया था, जिसमें 17 बार उसे पराजित होना पड़ा। किसी भी इतिहासकार को किंवदंतियों के आधार पर अपना मत बनाना कठिन होता है। इस विषय में इतना निश्चित है कि गौरी और पृथ्वीराज में कम से कम दो भीषण युद्ध आवश्यक हुए थे, जिनमें प्रथम में पृथ्वीराज विजयी और दूसरे में पराजित हुआ था। वे दोनों युद्ध थानेश्वर के निकटवर्ती तराइन या तरावड़ी के मैदान में क्रमशः सं. ११९१ और ११९२ में हुए थे।

पृथ्वीराज की सेना
कहा जाता है कि पृथ्वीराज की सेना में तीन सौ हाथी तथा 3,00,000 सैनिक थे, जिनमें बड़ी संख्या में घुड़सवार भी थे। दोनों तरफ़ की सेनाओं की शक्ति के वर्णन में अतिशयोक्ति भी हो सकती है। संख्या के हिसाब से भारतीय सेना बड़ी हो सकती है, पर तुर्क सेना बड़ी अच्छी तरह संगठित थी। वास्तव में यह दोनों ओर के घुड़सवारों का युद्ध था। मुइज्जुद्दीन की जीत श्रेष्ठ संगठन तथा तुर्की घुड़सवारों की तेज़ी और दक्षता के कारण ही हुई। भारतीय सैनिक बड़ी संख्या में मारे गए। तुर्की सेना ने हांसी, सरस्वती तथा समाना के क़िलों पर क़ब्ज़ा कर लिया। इसके बाद उन्होंने अजमेर पर चढ़ाई की और उसे जीता। कुछ समय तक पृथ्वीराज को एक ज़ागीरदार के रूप में राज करने दिया गया क्योंकि हमें उस काल के ऐसे सिक्के मिले हैं जिनकी एक तरफ़ 'पृथ्वीराज' तथा दूसरी तरफ़ 'श्री मुहम्मद साम' का नाम खुदा हुआ है। पर इसके शीघ्र ही बाद षड़यंत्र के अपराध में पृथ्वीराज को मार डाला गया और उसके पुत्र को गद्दी पर बैठाया गया। दिल्ली के शासकों को भी उसका राज्य वापस कर दिया गया, लेकिन इस नीति को शीघ्र ही बदल दिया गया। दिल्ली के शासक को गद्दी से उतार दिया और दिल्ली गंगा घाटी पर तुर्कों के आक्रमण के लिए आधार स्थान बन गई। पृथ्वीराज के कुछ भूतपूर्व सेनानियों के विद्रोह के बाद पृथ्वीराज के लड़के को भी गद्दी से उतार दिया गया और उसकी जगह अजमेर का शासन एक तुर्की सेनाध्यक्ष को सौंपा दिया गया। इस प्रकार दिल्ली का क्षेत्र और पूर्वी राजस्थान तुर्कों के शासन में आ गया।

पृथ्वीराज का विजयी अभियान
गुजरात के भीमदेव के साथ युद्ध
गुजरात में उस समय चालुक्य वंश के महाराजा भीमदेव बघेला का राज था। उसने पृथ्वीराज के किशोर होने का फायदा उठाना चाहता था। यही विचार कर उसने नागौर पर आक्रमण करने का निश्चय कर लिया। पृथ्वीराज किशोर अवश्य था परन्तु उसमे साहस-सयम और निति-निपुणता के भाव कूट-कूट कर भरे हुवे थे। जब पृथ्वीराज को पता चला के चालुक्य राजा ने नागौर पर अपना अधिकार करना चाहते है तो उन्होंने भी अपनी सेना को युद्ध के लिए तैयार रहने के लिए कहा। भीमदेव ने ही पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर को युद्ध में हरा कर मृत्यु के घाट उतर दिया था। नौगर के किले के बाहर भीमदेव के पुत्र जगदेव के साथ पृथ्वीराज का भीषण संग्राम हुआ जिसमे अंतत: जगदेव की सेना ने पृथ्वीराज की सेना के सामने घुटने टेक दिए। फलसवरूप जगदेव ने पृथ्वीराज से संधि कर ली और पृथ्वीराज ने उसे जीवन दान दे दिया और उसके साथ वीरतापूर्ण व्यव्हार किया। जगदेव के साथ संधि करके उसको अकूत घोड़े, हठी और धन सम्पदा प्राप्त हुयी। आस पास के सभी राज्यों में सभी पृथ्वीराज की वीरता, धीरता और रन कोशल का लोहा मानने लगे। यहीं से पृथ्वीराज चौहान का विजयी अभियान आगे की और बढने लगा।

पृथ्वीराज और संयोगिता का प्रेम और स्वयंवर
संयोंगिता कन्नौज के राजा जयचंद की पुत्री थी। वह बड़ी ही सुन्दर थी, उसने भी पृथ्वीराज की वीरता के अनेक किस्से सुने थे। उसे पृथ्वीराज देवलोक से उतरा कोई देवता ही प्रतीत होता था। वो अपनी सहेलियों से भी पृथ्वीराज के बारे में जानकारियां लेती रहती थी। एकबार दिल्ली से पन्नाराय चित्रकार कन्नौज राज्य में आया हुआ था। उसके पास दिल्ली के सौंदर्य और राजा पृथ्वीराज के भी कुछ दुर्लभ चित्र थे। राजकुमारी संयोंगिता की सहेलियों ने उसको इस बारे में जानकारी दी। फलस्वरूप राजकुमारी जल्दी ही पृथ्वीराज का चित्र देखने के लिए उतावली हो गयी। उसने चित्रकार को अपने पास बुलाया और चित्र दिखने के लिए कहा परन्तु चित्रकार उसको केवल दिल्ली के चित्र दिखता रहा परन्तु राजकुमारी के मन में तो पृथ्वीराज जैसा योद्धा बसा हुआ था। अंत में उसने स्वयं चित्रकार पन्नाराय से महाराज पृथ्वीराज का चित्र दिखने का आग्रह किया। पृथ्वीराज का चित्र देखकर वो कुछ पल के लिए मोहित सी हो गयी। उसने चित्रकार से वह चित्र देने का अनुरोध किया जिसे चित्रकार ने सहर्ष ही स्वीकार लिया। इधर राजकुमारी के मन में पृथ्वीराज के प्रति प्रेम हिलोरे ले रहा था वहीं दूसरी तरफ उनके पिता जयचंद पृथ्वीराज की सफलता से अत्यंत भयभीत थे और उससे इर्ष्या भाव रखते थे। चित्रकार पन्नाराय ने राजकुमारी का मोहक चित्र बनाकर उसको पृथ्वीराज के सामने प्रस्तुत किया। पृथ्वीराज भी राजकुमारी संयोगिता का चित्र देखकर मोहित हो गए। चित्रकार के द्वारा उन्हें राजकुमारी के मन की बात पता चली तो वो भी राजकुमारी के दर्शन को आतुर हो पड़े। राजा जयचंद हमेशा पृथ्वीराज को निचा दिखने का अवसर खोजता रहता था। यह अवसर उसे जल्दी प्राप्त हो गया उसने संयोगिता का स्वयंवर रचाया और पृथ्वीराज को छोड़कर भारतवर्ष के सभी राजाओं को निमंत्रित किया और उसका अपमान करने के लिए दरबार के बाहर पृथ्वीराज की मूर्ती दरबान के रूप में कड़ी कर दी। इस बात का पता पृथ्वीराज को भी लग चूका था और उसने इसका उसी के शब्दों और उसी भाषा में जवाब देने का मन बना लिया। उधर स्वयंवर में जब राजकुमारी संयोगिता वरमाला हाथो में लेकर राजाओ को पार करती जा रही थी पर उसको उसके मन का वर नज़र नहीं आ रहा था। यह राजा जयचंद की चिंता भी बढ गयी। अंतत: सभी राजाओ को पार करते हुए वो जब अंतिम छोर पर पृथ्वीराज की मूर्ति के सामने से गुजरी तो उसने वही अपने प्रियतम के गले में माला डाल दी। समस्त सभा में हाहाकार मच गया। राजा जयचंद ने अपनी तलवार निकल ली और राजकुमारी को मारने के लिए दोड़े पर उसी समय पृथ्वीराज आगे बढ कर संयोगिता को थाम लिया और घोड़े पर बैठाकर निकल पड़ा। वास्तव में पृथ्वीराज स्वयं मूर्ति की जगह खड़ा हो गया था। इसके बाद तो राजा जयचंद के मन में पृथ्वीराज के प्रति काफी कटुता भर गयी और वो अवसर की तक में रहने लगा।

तराइन का प्रथम युद्ध (गौरी की पराजय)
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अपने साम्राज्य के विस्तार और सुव्यवस्था पर पृथ्वीराज की पैनी दृष्टि हमेशा जमी रहती थी। अब उनकी इच्छा पंजाब तक विस्तार करने की थी। किन्तु उस समय पंजाब पर मुहम्मद शाहबुद्दीन गौरी का राज था। ११९० ई० तक सम्पूर्ण पंजाब पर मुहम्मद गौरी का अधिकार हो चुका था। अब वह भटिंडा से अपना राजकाज चलता था। पृथ्वीराज यह बात भली भांति जनता था की मुहम्मद गौरी से युद्ध किये बिना पंजाब में चौहान साम्राज्य स्थापित करना असंभव था। यही विचार कर उसने गौरी से निपटने का निर्णय लिया। अपने इस निर्णय को मूर्त रूप देने के लिए पृथ्वीराज एक विशाल सेना लेकर पंजाब की ओर रवाना हो गया। तीव्र कार्यवाही करते हुए उसने हांसी, सरस्वती और सरहिंद के किलो पर अपना अधिकार कर लिया। इसी बीच उसे सुचना मिली की अनहीलवाडा में विद्रोहियों ने उनके विरुद्ध विद्रोह कर दिया है। पंजाब से वह अनहीलवाडा की ओर चल पड़ा। उनके पीठ पीछे गौरी ने आक्रमण करके सरहिंद के किले को पुन: अपने कब्जे में ले लिया। पृथ्वीराज ने शीघ्र ही अनहीलवाडा के विद्रोह को कुचल दिया। अब उसने गौरी से निर्णायक युद्ध करने का निर्णय लिया। उसने अपनी सेना को नए ढंग से सुसज्जित किया और युद्ध के लिए चल दिया। रावी नदी के तट पर पृथ्वीराज के सेनापति समर सिंह और गौरी की सेना में भयंकर युद्ध हुआ परन्तु कुछ परिणाम नहीं निकला। यह देख कर पृथ्वीराज गौरी को सबक सिखाने के लिए आगे बढ़ा। थानेश्वर से १४ मील दूर और सरहिंद के किले के पास तराइन नामक स्थान पर यह युद्ध लड़ा गया। तराइन के इस पहले युद्ध में राजपूतो ने गौरी की सेना के छक्के छुड़ा दिए। गौरी के सैनिक प्राण बचा कर भागने लगे। जो भाग गया उसके प्राण बच गए, किन्तु जो सामने आया उसे गाजर-मुली की तरह काट डाला गया। सुल्तान मुहम्मद गौरी युद्ध में बुरी तरह घायल हुआ। अपने ऊँचे तुर्की घोड़े से वह घायल अवस्था में गिरने ही वाला था की युद्ध कर रहे एक उसके सैनिक की दृष्टि उस पर पड़ी। उसने बड़ी फुर्ती के साथ सुल्तान के घोड़े की कमान संभल ली और कूद कर गौरी के घोड़े पर चढ़ गया और घायल गौरी को युद्ध के मैदान से निकाल कर ले गया। नेतृत्व विहीन सुल्तान की सेना में खलबली मच चुकी थी। तुर्क सेनिक राजपूत सेना के सामने भाग खड़े हुए। पृथ्वीराज की सेना ने ८० मील तक इन भागते तुर्कों का पीछा किया। पर तुर्क सेना ने वापस आने की हिम्मत नहीं की। इस विजय से पृथ्वीराज चौहान को ७ करोड़ रुपये की धन सम्पदा प्राप्त हुयी। इस धन सम्पदा को उसने अपने बहादुर सैनिको में बाँट दिया। इस विजय से सम्पूर्ण भारतवर्ष में पृथ्वीराज की धाक जम गयी और उनकी वीरता, धीरता और साहस की कहानी सुनाई जाने लगी।

तराइन का द्वितीय युद्ध (११९२ ई०) और जयचंद का देशद्रोह
पृथ्वीराज चौहान द्वारा राजकुमारी संयोगिता का हरण करके इस प्रकार कनौज से ले जाना रजा जयचंद को बुरी तरह कचोट रहा था। उसके ह्रदय में अपमान के तीखे तीर से चुभ रहे थे। वह किसी भी कीमत पर पृथ्वीराज का विध्वंश चाहता था। भले ही उसे कुछ भी करना पड़े। विश्वसनीय सूत्रों से उसे पता चला की मुहम्मद गौरी पृथ्वीराज से अपनी पराजय का बदला लेना चाहता है। बस फिर क्या था जयचंद को मनो अपने मन की मुराद मिल गयी। उसने गौरी की सहायता करके पृथ्वीराज को समाप्त करने का मब बनाया। जयचंद अकेले पृथ्वीराज से युद्ध करने का सहस नहीं कर सकता था। उसने सोचा इस तरह पृथ्वीराज भी समाप्त हो जायेगा और दिल्ली का राज्य उसको पुरस्कार सवरूप दे दिया जायेगा। राजा जयचंद के देशद्रोह का परिणाम यह हुआ की जो मुहम्मद गौरी तराइन के युद्ध में अपनी हर को भुला नहीं पाया था, वह फिर पृथ्वीराज का मुकाबला करने के षड़यंत्र करने लगा। राजा जयचंद ने दूत भेजकर गौरी को सैन्य सहायता देने का आश्वासन दिया। देशद्रोही जयचंद की सहायता पाकर गौरी तुरंत पृथ्वीराज से बदला लेने के लिए तैयार हो गया। जब पृथ्वीराज को ये सुचना मिली की गौरी एक बार फिर युद्ध की तैयारियों में जुटा हुआ तो उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। मुहम्मद गौरी की सेना से मुकाबल करने के लिए पृथ्वीराज के मित्र और राज कवि चंदबरदाई ने अनेक राजपूत राजाओ से सैन्य सहायता का अनुरोध किया परन्तु संयोगिता के हरण के कारण बहोत से राजपूत राजा पृथ्वीराज के विरोधी बन चुके थे वे कन्नौज नरेश के संकेत पर गौरी के पक्ष में युद्ध करने के लिए तैयार हो गए। ११९२ ई० में एक बार फिर पृथ्वीराज और गौरी की सेना तराइन के क्षेत्र में युद्ध के लिए आमने सामने कड़ी थी। दोनों और से भीषण युद्ध शुरू हो गया। इस युद्ध में पृथ्वीराज की और से ३ लाख सेनिको ने भाग लिया था जबकि गौरी के पास एक लाख बीस हजार सैनिक थे। गौरी की सेना की विशेष बात ये थी की उसके पास शक्तिशाली घुड़सवार दस्ता था। पृथ्वीराज ने बड़ी ही आक्रामकता से गौरी की सेना पर आकर्मण किया। उस समय भारतीय सेना में हाथी के द्वारा सैन्य प्रयोग किया जाता था। गौरी के घुड़सवारो ने आगे बढकर राजपूत सेना के हाथियों को घेर लिया और उनपर बाण वर्षा शुरू कर दी। घायल हाथी न तो आगे बाद पाए और न पीछे बल्कि उन्होंने घबरा कर अपनी ही सेना को रोंदना शुर कर दिया। तराइन के द्वित्य युद्ध की सबसे बड़ी त्रासदी यह थी की देशद्रोही जयचंद के संकेत पर राजपूत सैनिक अपने राजपूत भाइयो को मार रहे थे। दूसरा पृथ्वीराज की सेना रात के समय आकर्मण नहीं करती थी (यही नियम महाभारत के युद्ध में भी था) लेकिन तुर्क सैनिक रात को भी आकर्मण करके मारकाट मचा रहे थे। परिणामस्वरूप इस युद्ध में पृथ्वीराज की हार हुई और उसको तथा राज कवि चंदबरदाई को बंदी बना लिया गया। देशद्रोही जयचंद का इससे भी बुरा हाल हुआ, उसको मर कर कन्नौज पर अधिकार कर लिया गया। पृथ्वीराज की हर से गौरी का दिल्ली, कन्नौज, अजमेर, पंजाब और सम्पूर्ण भारतवर्ष पर अधिकार हो गया। भारत मे इस्लामी राज्य स्थापित हो गया। अपने योग्य सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक को भारत का गवर्नोर बना कर गौरी, पृथ्वीराज और चंदबरदाई को युध्बन्धी के रूप में अपने गृह राज्य गौरी की और रवाना हो गया।

चंदबरदाई कृत पृथ्वीराज रासो
अंत में अपने प्रमाद और जयंचद्र के द्वेष के कारण वह पराजित हो गया और उसकी मृत्यु हो गई। उसका मृत्यु काल सं. 1248 माना जाता है। उसके पश्चात मुहम्मद गौरी ने कन्नौज नरेश जयचंद्र को भी हराया और मार डाला। आपसी द्वेष के कारण उन दोनों की हार और मृत्यु हुई। पृथ्वीराज से संबंधित घटनाओं का काव्यात्मक वर्णन चंदबरदाई कृत पृथ्वीराज रासो नामक ग्रंथ में हुआ है।

पानीपत का द्वितीय युद्ध

पानीपत का द्वितीय युद्ध उत्तर भारत के हिंदू शासक सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य (लोकप्रिय नाम- हेमू) और अकबर की सेना के बीच 5 नवम्बर 1556 को पानीपत के मैदान में लड़ा गया था।[1] अकबर के सेनापति खान जमान और बैरम खान के लिए यह एक निर्णायक जीत थी।[2] इस युद्ध के फलस्वरूप दिल्ली पर वर्चस्व के लिए मुगलों और अफगानों के बीच चलने वाला संघर्ष अन्तिम रूप से मुगलों के पक्ष में निर्णीत हो गया और अगले तीन सौ वर्षों तक मुगलों के पास ही रहा।

पृष्ठभूमि


24 जनवरी 1556 में मुगल शासक हुमायूं का दिल्ली में निधन हो गया और उसके बेटे अकबर ने गद्दी संभाली। उस समय अकबर केवल तेरह वर्ष का था। 14 फ़रवरी 1556 को पंजाब के कलानौर में उसक राज्याभिषेक हुआ। इस समय मुगल शासन काबुल, कंधार, दिल्ली और पंजाब के कुछ हिस्सों तक ही सीमित था। अकबर अपने संरक्षक, बैरम खान के साथ काबुल में कार्यरत था।

1556 में दिल्ली की लड़ाई में अकबर की सेना को पराजित करने के बाद हेमू उत्तर भारत का शासक बन गया था। इससे पहले हेमू ने अफगान शासक आदिल शाह की सेना के प्रधान मंत्री व मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया था।

हेमू वर्तमान हरियाणा के रेवाड़ी का एक हिन्दू था। 1553-1556 के दौरान हेमू ने सेना के प्रधान मंत्री व मुख्यमंत्री के रूप में पंजाब से बंगाल तक 22 युद्ध जीते थे। जनवरी 1556 में हुमायूं की मौत के समय, हेमू बंगाल में था जहाँ एक युद्ध में बंगाल के शासक मुहम्मद शाह को मार कर विद्रोह पर काबू पा लिया था। जब उन्होंने हुमायूं की मौत के बारे में सुना तो उन्होंने अपने सेना नायकों को अपने लिए दिल्ली के सिंहासन पर कब्जा करने का आदेश दिया। उन्होंने खुला विद्रोह कर दिया और उत्तरी भारत भर में कई युद्ध जीतते हुए उन्होंने आगरा पर हमला किया। अकबर का सेनानायक वहाँ से युद्ध किए बिना ही भाग खड़ा हुआ। हेमू का इटावा, कालपी और आगरा प्रांतों पर नियंत्रण हो गया। ग्वालियर में, हेमू ने और हिंदुओं की भर्ती से अपनी सेना मजबूत कर ली।

हेमू ने दिल्ली (तुगलकाबाद के पास) की लड़ाई में 6 अक्टूबर को मुगल सेना को हरा दिया। लगभग 3,000 मुगलों को मार डाला। मुगल कमांडर Tardi बेग दिल्ली को हेमू के कब्जे में छोड़, बचे खुचे सैनिकों के साथ भाग गया। अगले दिन दिल्ली के पुराना किला में हेमू का राज्याभिषेक किया गया। मुस्लिम शासन के 350 वर्षों के बाद, उत्तर भारत में फिर से हिंदू शासन स्थापित हुआ। हालाँकि यह भी कुछ ही दिन का मेहमान साबित हुआ।

अकबरनामा में अबुल फजल के अनुसार, हेमू काबुल पर हमले के लिए तैयारी कर रहा था और उसने अपनी सेना में कई बदलाव किए।

युद्ध


दिल्ली और आगरा के पतन से कलानौर में मुगल परेशान हो उठे। कई मुगल जनरलों ने अकबर को हेमू की विशाल सेना को चुनौती देने की बजाय काबुल की तरफ पीछे हटने की सलाह दी। लेकिन बैरम खान युद्ध के पक्ष में फैसला किया। अकबर की सेना ने दिल्ली की ओर कूच किया।

5 नवम्बर को पानीपत के ऐतिहासिक युद्ध के मैदान में दोनों सेनाओं का सामना हुआ, जहाँ तीस साल पहले अकबर के दादा बाबर ने पानीपत की पहली लड़ाई में इब्राहिम लोदी को हराया था। एच जी कीन के अनुसार -"अकबर और उसके अभिभावक बैरम खान ने लड़ाई में भाग नहीं लिया और युद्ध क्षेत्र से 5 कोस (8 मील) दूर तैनात थे। बैरम खान 13 साल के अल्पवय राजा के युद्ध के मैदान पर उपस्थित होने के लिए पक्ष में नहीं था। इसके बजाय उसे 5000 सुप्रशिक्षित और सबसे वफादार सैनिकों की एक विशेष गार्ड के साथ लड़ाई के इलाक़े में एक सुरक्षित दूरी पर तैनात किया गया था। अकबर को बैरम खान द्वारा निर्देश दिया गया था युद्ध के मैदान में यदि मुगल सेना हार जाए तो वह काबुल की ओर पलायन कर जाए।"[3]

हेमू ने अपनी सेना का नेतृत्व स्वयं किया। हेमू की सेना 1500 युद्ध हाथियों और उत्कृष्ट तोपखाने से सुसज्जित थी। हेमू, जिसकी पिछली सफलता ने उसके गर्व और घमंड में वृद्धि कर दी थी, 30,000 की सुप्रशिक्षित राजपूत और अफगान अश्वारोही सेना के साथ उत्कृष्ट क्रम में आगे बढ़ा।

युद्ध का परिणाम


हेमू की सेना की बड़ी संख्या के बावजूद अकबर की सेना ने लड़ाई जीत ली। हेमू को गिरफ्तार कर लिया गया और मौत की सजा दी गई थी। उसका कटा हुआ सिर काबुल के दिल्ली दरवाजा पर प्रदर्शन के लिए भेजा गया था।[कृपया उद्धरण जोड़ें] उसके धड़ दिल्ली के पुराना किला के बाहर फांसी पर लटका दिया गया था ताकि हिंदू आबादी के दिलों में डर पैदा हो। हेमू की पत्नी के खजाने के साथ, पुराना किला से भाग निकली और कभी उनका पता नहीं चला। बैरम खान ने हिंदुओं की सामूहिक हत्या का आदेश दिया जो कई वर्षों तक जारी रहा।[4] हेमू के रिश्तेदारों और करीबी अफगान समर्थकों को पकड़ लिया गया और उनमें से कईयों को मौत की सजा दी गई। कई स्थानों पर उन कटे हुए सिरों से मीनारें भी बनवाई गईं (देखें चित्र)। हेमू के 82 वर्षीय पिता, जो अलवर भाग गए थे, छह महीने के बाद उन्हें पकड़ लिया गया और और इस्लाम कबूल करने से मना करने पर मौत की सजा दे दी गई।[4] अकबर ने ज्यादा प्रतिरोध के बिना आगरा और दिल्ली पर पुनः कब्जा कर लिया।[कृपया उद्धरण जोड़ें] लेकिन इसके तुरंत बाद, उसे सिकंदर शाह सूरी (आदिल शाह सूरी के भाई) के आक्रमण का मुकाबला करने के लिए पंजाब को लौटना पड़ा। इस युद्ध में मुगल सेना ने मनकोट के किले की घेराबंदी के बाद सिकंदर शाह को हराकर बंदी बना लिया और देश निकाला देकर बंगाल भेज दिया।

1556 में पानीपत में अकबर की जीत भारत में मुगल सत्ता की वास्तविक बहाली थी। बंगाल तक का सारा क्षेत्र जो हेमू के कब्जे में था, पर कब्जा करने के लिए अकबर को आठ साल लगे।

पानीपत का पहला युद्ध

पानीपत का पहला युद्ध, उत्तरी भारत में लड़ा गया था और इसने इस इलाके में मुग़ल साम्राज्य की नींव रखी। यह उन पहली लड़ाइयों मे से एक थी जिसमें बारूद,आग्नेयास्त्रों और मैदानी तोपखाने को लड़ाई में शामिल किया गया था।
सन् 1526 में, काबुल के तैमूरी शासक ज़हीर उद्दीन मोहम्मद बाबर, की सेना ने दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी, की एक ज्यादा बड़ी सेना को युद्ध में परास्त किया।
युद्ध को 21 अप्रैल को पानीपत नामक एक छोटे से गाँव के निकट लड़ा गया था जो वर्तमान भारतीय राज्य हरियाणा में स्थित है। पानीपत वो स्थान है जहाँ बारहवीं शताब्दी के बाद से उत्तर भारत के नियंत्रण को लेकर कई निर्णायक लड़ाइयां लड़ी गयीं।
एक अनुमान के मुताबिक बाबर की सेना में 15000 के करीब सैनिक और 20-24 मैदानी तोपें थीं। लोधी का सेनाबल 130000 के आसपास था, हालांकि इस संख्या में शिविर अनुयायियों की संख्या शामिल है, जबकि लड़ाकू सैनिकों की संख्या कुल 100000 से 110000 के आसपास थी, इसके साथ कम से कम 300 युद्ध हाथियों ने भी युद्ध में भाग लिया था। क्षेत्र के हिंदू राजा-राजपूतों इस युद्ध में तटस्थ रहे थे, लेकिन ग्वालियर के कुछ तोमर राजपूत इब्राहिम लोदी की ओर से लड़े थे।

भारतीय इतिहास के प्रमुख युद्ध

.पू.
३२६ हाईडेस्पीज का युद्ध : सिकंदर और पंजाब के राजा पोरस के बीच जिसमे सिकंदर की विजय हुई |
२६१ कलिंग की लड़ाई : सम्राट अशोक ने कलिंग पर आक्रमण किया था और युद्ध के रक्तपात से विचलित होकर उन्होंने युद्ध करने की कसम खाई |
ईस्वी
७१२ – सिंध की लड़ाई में मोहम्मद कासिम ने अरबों की सत्ता स्थापित की |
११९१ – तराईन का प्रथम युद्ध – मोहम्मद गौरी और पृथ्वी राज चौहान के बीच हुआ था | चौहान की विजय हुई |
११९२ -तराईन का द्वितीय युद्ध – मोहम्मद गौरी और पृथ्वी राज चौहान के बीचइसमें मोहम्मद गौरी की विजय हुई |
११९४ -चंदावर का युद्ध – इसमें मुहम्मद गौरी ने कन्नौज के राजा जयचंद को हराया |
१५२६ -पानीपत का प्रथम युद्ध -मुग़ल शासक बाबर और इब्राहीम लोधी के बीच |
१५२७ -खानवा का युद्ध – इसमें बाबर ने राणा सांगा को पराजित किया |
१५२९ -घाघरा का युद्ध -इसमें बाबर ने महमूद लोदी के नेतृत्व में अफगानों को हराया |
१५३९ – चौसा का युद्ध – इसमें शेरशाह सूरी ने हुमायु को हराया |
१५४० – कन्नौज (बिलग्राम का युद्ध) : इसमें फिर से शेरशाह सूरी ने हुमायूँ को हराया  भारत छोड़ने पर मजबूर किया |
१५५६ – पानीपत का द्वितीय युद्ध :अकबर और हेमू के बीच |
१५६५ – तालीकोटा का युद्ध : इस युद्ध से विजयनगर साम्राज्य का अंत हो गया क्यूंकि बीजापुरबीदर,अहमदनगर  गोलकुंडाकी संगठित सेना ने लड़ी थी |
१५७६ – हल्दी घाटी का युद्ध : अकबर और राणा प्रताप के बीचइसमें राणा प्रताप की हार हुई |
१७५७ – प्लासी का युद्ध : अंग्रेजो और सिराजुद्दौला के बीचजिसमे अंग्रेजो की विजय हुई और भारत में अंग्रेजी शासन कीनीव पड़ी |
१७६० – वांडीवाश का युद्ध : अंग्रेजो और फ्रांसीसियो के बीचजिसमे फ्रांसीसियो की हार हुई |
१७६१ -पानीपत का तृतीय युद्ध :अहमदशाह अब्दाली और मराठो के बीच | जिसमे फ्रांसीसियों की हार हुई |
१७६४ -बक्सर का युद्ध : अंग्रेजो और शुजाउद्दौलामीर कासिम एवं शाह आलम द्वितीय की संयुक्त सेना के बीच | अंग्रेजो कीविजय हुई | अंग्रेजो को भारत वर्ष में सर्वोच्च शक्ति माना जाने लगा |
१७६७-६९ – प्रथम मैसूर युद्ध : हैदर अली और अंग्रेजो के बीचजिसमे अंग्रेजो की हार हुई |
१७८०-८४ – द्वितीय मैसूर युद्ध : हैदर अली और अंग्रेजो के बीचजो अनिर्णित छूटा |
१७९० – तृतीय आंग्ल मैसूर युद्ध : टीपू सुल्तान और अंग्रेजो के बीच लड़ाई संधि के द्वारा समाप्त हुई |
१७९९ – चतुर्थ आंग्ल मैसूर युद्ध : टीपू सुल्तान और अंग्रेजो के बीच , टीपू की हार हुई और मैसूर शक्ति का पतन हुआ |
१८४९ – चिलियान वाला युद्ध : ईस्ट इंडिया कंपनी और सिखों के बीच हुआ था जिसमे सिखों की हार हुई |
१९६२ – भारत चीन सीमा युद्ध : चीनी सेना द्वारा भारत के सीमा क्षेत्रो पर आक्रमण | कुछ दिन तक युद्ध होने के बादएकपक्षीय युद्ध विराम की घोषणा | भारत को अपनी सीमा के कुछ हिस्सों को छोड़ना पड़ा |
१९६५ – भारत पाक युद्ध : भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध जिसमे पाकिस्तान की हार हुई | फलस्वरूप बांग्लादेश एकस्वतन्त्र देश बना |
१९९९ -कारगिल युद्ध : जम्मू एवं कश्मीर के द्रास और कारगिल क्षेत्रो में पाकिस्तानी घुसपैठियों को लेकर हुए युद्ध में पुनःपाकिस्तान को हार का सामना करना पड़ा और भारतीयों को जीत मिली |

गुप्तोत्तर काल

5वी शताब्दी के आस-पास गुप्त साम्राज्य का पतन होना प्रारंभ हो गया था। गुप्त साम्राज्य के पतन के  साथ ही मगध एवं उसकी राजधानी पाटलिपुत्र ने भी अपना महत्व खो दिया। इसीलिए गुप्तोत्तर काल पूरी तरह से संघर्ष से भरा पड़ा है। गुप्तो के पतन के परिणामस्वरूप उत्तरी भारत में  5 शक्तिशाली साम्राज्यों के उद्भव हुआ ये राज्य निम्नलिखित हैं।
1-हूण - हूण मध्य एशिया की सामान्य जनजातियां थी जो की भारत आई थीं। कुमारगुप्त के काल में हूणों ने पहली बार भारत पर आक्रमण किया था, यद्यपि वे कुमारगुप्त और स्कन्दगुप्त के काल में सफल तो नहीं हो पाए लेकिन फिर भी भारत में उनका प्रवेश संभव हुआ। हूणों ने बहुत अल्प काल तक (30 साल)भारत में शासन किया .फिर भी उत्तरी भारत में उन्होंने अपनी शक्ति को स्थापित किया।
तोरमाण उनका सबसे शक्तिशाली राजा और मिहिरकुल उनका सबसे संस्कृति सम्पन्न शासक था।
2.मौखरी-पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कन्नौज के आस-पास मौखरियों का शासन था। उन्होंने भी मगध के कुछ हिस्सों पर विजय प्राप्त किया था। क्रमश: उत्तरी गुप्त शासको के द्वारा वे पराजित हुए और मालवा की तरफ निष्कासित कर दिए गए।
3. मैत्रक- मैत्रको के बारे में यह संभावना लगाई जाती है की ये ईरान के रहने वाले थे और गुजरात में सौराष्ट्र क्षेत्र में शासन किया था। उनकी राजधानी बल्लभी थी। इनके शासन काल में वल्लभी ने कला ,संस्कृति,व्यापार,वाणिज्य आदि के क्षेत्र में महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की, जिसने अरबो के आक्रमण तक अपनी उपस्थिति बनाये रखा।
4.पुष्यभूति- पुष्यभूतियो की राजधानी थानेश्वर(उत्तरी दिल्ली) थी। प्रभाकर बर्धन इस साम्राज्य का सबसे मह्त्वपूर्ण शासक था। उसने परम भट्टारक महाराजाधिराज नामक उपाधि धारण की थी। मौखरियो के साथ उनके वैवाहिक सम्बन्ध थे। वैवाहिक संबंधो की वजह से दोनों साम्राज्यों की शक्ति में वृद्धि हुई। हर्षबर्धन इसी गोत्र से सम्बन्ध रखता था।
5. गौड़- गौडो ने बंगाल के ऊपर शासन किया था। उपरोक्त चार राज्यों में ये सबसे छोटे राज्य थे। गौडो का सबसे महत्वपूर्ण और शास्क्तिशाली राजा शशांक था। उसने मौखरियो के ऊपर आक्रमण करके ग्रहवर्मन को को पराजित किया और राज्यश्री को बंदी बना लिया।
महत्वपूर्ण साम्राज्य और शासक:
हर्षबर्धन का साम्राज्य-
हर्षबर्धन(606- 647 ईस्वी): हर्षबर्धन ने 1400 वर्ष पूर्व शासन किया था। बहुत सारे ऐतिहासिक स्रोत हर्षबर्धन के साम्राज्य के बारे में उल्लेख करते है।
ह्वेनसांग- इसने सी-यू-की नामक ग्रन्थ की रचना की थी।
बाणभट्ट-इन्होने हर्षचरित्र(हर्षबर्धन के उत्कर्ष और उसके साम्राज्य,शक्ति और उसकी आत्मकथा का उल्लेख) कादम्बरी और प्रभावती परिणय की रचना की थी।
हर्ष के रचना-हर्ष ने स्वयं राजनितिक परिस्थितियों का वर्णन करने के लिए रत्नावाली,नागानंद, और प्रियदर्शिका की रचना की थी। हर्षबर्धन ने स्वयं हरिदत्त और जयसेन को संरक्षण दिया था।
हर्ष की शक्ति का उत्कर्ष- अपने बड़े भाई राज्यबर्धन र्धन की मृत्यु के बाद हर्ष 606 ईस्वी में राजा बना। राजा बनाने के बाद उसने अपने भाई की मौत का बदला लेने और अपनी बहन को मुक्त कराने के लिए  बंगाल के राजा शशांक के बिरुद्ध एक बृहद अभियान का नेतृत्व किया। गौडो के विरुद्ध अपने प्रथम अभियान में वह असफल रहा लेकिन जल्दी ही उसने अपने साम्राज्य का बिस्तार किया।
हर्षबर्धन का प्रशासन-
अधिकारीप्रशासन का क्षेत्र 
महासंधि बिग्राहकशांति और युद्ध का सबसे बड़ा अधिकारी
महाबलाधि कृतथल सेना का प्रमुख अधिकारी 
बलाधिकृतकमान्डर
आयुक्तकसामान्य अधिकारी 
वृहदेश्वरअश्व सेना का प्रमुख
दूत राजस्थारुयाविदेश मंत्री 
कौतुकहस्ती सेना का प्रमुख
उपरिक महाराज राज्य प्रमुख

गुजरात में पाए गए हड्प्पन शहरों की सूची

सिंधु घाटी सभ्यता जिसे की हम हडप्पा सभ्यता के नाम से भी जानते हैं विश्व की प्राचीनतम महान सभ्यता थी| स्वतंत्रता पश्चात पुनरखनन के बाद जिसे हडप्पा सभ्यता का प्रथम स्थल माना गया वह गुजरात के रंगपुर में लिंबी तालुका जिले पास है | सन 1954-1958 तक गुजरात में तथा सौराष्ट्र एवं कच्छ प्रायद्वीप के पास होने वेल सभी सर्वेक्षणो में हडप्पा सभ्यता के विभिन्न चरणों को देखा गया |  हडप्पा वासियों ने 2500 ईसा पूर्व में कच्छ के मार्ग से होते हुए एक बहुत ही अद्भुत तरीके से बसना प्रारंभ किया था |
लोथल-
- गुजरात में स्थित यह स्थल 1957 में एस आर राव द्वारा खोजा गया |
- सिंधु घाटी सभ्यता का यह शहर गुजरात मे भोगवा नदी के किनारे बसा था, तथा यह गुजरात के साबरमती नदी की उपनदी के किनारे बसा था जो की खंभात की खाड़ी के पास था | यह उन स्थानों से करीब था जहाँ की अर्ध बहुमूल्य कीमती पत्थर आसानी से उपलब्ध हो सके |
- लोथल का नाम अहमदाबाद में ढोलका तालुका में सर्जवाला गाँव में एक टीले के प्राप्त होने के कारण पड़ा था |
- यह सिंधु घाटी का एकमात्र स्थल है जहाँ नकली इंटो का बना हुआ गोदी बाड़ा प्राप्त हुआ है और ऐसा अनुमान है क यह गोदी बाड़ा सिंधु के लोगों के लिए सामुद्री मार्ग का एक महत्वपूर्ण ज़रिया होगा. जो की एक बड़ी दीवार से चारो ओर से घिरा हुआ था जो की संभवतः बाढ से बचने के लिए बनाई गयी होगी |  विश्व का प्रथम ज्वारीय तट भी लोथल मे ही प्राप्त हुआ है |
- लोथल से ही दो लोगो के साथ दफ़नाए जाने का साक्ष्य भी मिलता है |
- 1800 ईसा पूर्व के काल का लोथल मे धान की कृषि का भी साक्ष्य भी मिलता है| धान की कृषि के अन्य स्थल रंगपुर एवं अहमदाबाद हैं |
- लोथल एवं चनूडारो में मोतियों की दुकान का भी पता चलता है |
-  अपने सूती वस्त्रों के उद्योग में विस्तार के वजह से ही लोथल हडप्पा का मैनचेस्टेर माना जाता था |
- तांबे को पिघलने की भट्टी का भी साक्ष्य प्राप्त हुआ है |
- पारस की खाड़ी की मोहर (एक गोल बटन नुमा मोहर) की भी प्राप्ति हुई है |
- एक या दो तेरकोटा की मिस्त्र से संबंधित दो ममिस जो की मलमल की वस्त्र मे लिपटी हुई है की भी प्राप्ति हुई है |
- लोथल व कालिबंगा में य्ग्य संबंधी अग्नि का भी साक्ष्य मिला है जो की संभवतः उनकी चिकित्सकीय व शल्य संबंधी कुशलता का वर्णन करती है |
- लोथल के घरों मे शतरंज जैसी वस्तुएँ भी प्राप्त हुई हैं |
- अंतिम क्रिया के स्थान पर जली हुई इंटो की प्राप्ति से पता चलता है कि कफ़न का प्रयोग होता था. कई स्थानों पर दो लोगो के एक साथ दफ़नाए जाने का भी पता चलता है. किंतु सती का साक्ष्य नही है |
- लोथल उन स्थानो मे से एक है जहा मेसोपोटामिया के साथ संबंध का साक्ष्य मिला है. इस स्थान के संबंध अन्य कई समुद्र पार के क्षेत्रों से भी था जिनका पता पर प्राप्त उन स्थानों के मोहरों से चलता है |
- स्ननागार एवं उत्तम निकास व्यवस्था जो की हड़प्पा की एक विशेषता थी वो लोथल में भी मिलती है. रसोई एवं कूए का स्थान शहर के उपरी भाग पर था |
- छोटे मनके की प्राप्ति लोथल की विशेषता है |
धौलवीरा
- इस स्थल की खोज सन 1990 में आर एस बिष्ट द्वारा ए एस आई की टीम के साथ मिलकर की | यह स्थल कच्छ के रण में जो खादर बेल्ट के अंतर्गत आता है वहाँ स्थित है |
- हडप्पा के स्थलों मे धौलवीरा सबसे बड़ा है, इसके अलावा जो अन्य स्थल है वो हरियाणा के राखीगर्ही मे स्थित है |
- धौलवीरा मुख्य रूप से तीन भागों मे विभाजित है, जिनमे से दो चौकोर रूप से गिरे हुएँ हैं तथा अन्य एक पुनः दो भाग दुर्ग एवं निचले भाग मे विभाजित है |  मध्य भाग का शहर मात्र धौलवीरा में ही दिखता है |
- निर्माण हेतु पत्थरों का प्रयोग होता था |
- 10 अक्षरों वाले एक बोर्ड की भी प्राप्ति हुई है |
- यह वह स्थान है जहाँ मेघ्लिथ प्रकार के दफ़नाए जाने का पता चलता है |
- कृषि व इससे संबंधित क्रिया जैसे सिंचाई आदि का भी साक्ष्य मिलता है |
धौलवीरा में हड़प्पा का अनाज के गोदाम का भी साक्ष्य मिला है |
- धौलवीरा, मॅंडी एवं दैमबाद में सुगठित सोने की अंगूठी का भी पता चलता है |
- धौलवीरा एक ऐसे स्थान पर स्थित था जो की संभवतः भूकंप मे नष्ट हो गया होगा |
सुरकोटडा
- यह गुजरात के भुज क्षेत्र मे स्थित है तथा इसकी खोज सन 1972 में जे पी जोशी द्वारा की गयी |
- करीब 2300 ईसा पूर्व में यह स्थान हड़प्पा क्षेत्र के अंतर्गत आता है, जहाँ चारो ओर से घिरा हुआ दुर्ग था, तथा घर मिट्टी के ईंटों से निर्मित है जिनमें स्नानघर व निकासी की समुचित व्यवस्था है |
-  दुर्ग एवं शेष नगर दोनो ही चारों ओर से गिरे हुए थे इसका पता खनन में प्राप्त चीज़ों से चलता है |
यह खनन में प्राप्त एक मात्र नगर है जो की चारों ओर से पत्थरों से घिरा था तथा एक मात्र नगर भी जहाँ घोड़े मिलने का पता चलता है |
- यहाँ पर मटके मे दफ़नाए जाने का साक्ष्य मिलता है |
रंगपुर
- गुजरात के अहमदाबाद से 51 की मी की दूरी पर यह नगर स्थित है. धान की भूसी का मिलना इस स्थान की सबसे बड़ी विशेषता है |

भारत में घटी ऐतिहासिक घटनाओं की क्रमवार सूची

भारत के सभी ऐतिहासिक घटनाओं की सूची यहाँ दी जा रही है। यह सूची निश्चय ही उन सभी विद्यार्थियों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी जो की किसी प्रतियोगी परीक्षा के लिए प्रयासरत हैं या जो भारत के इतिहास मे रूचि रखते हैं

ईसा पूर्व-
2500-1800:  सिंधु घाटी सभ्यता।
599: महावीर का जन्म; 523 ईसा पूर्व मे निर्वाण प्राप्त।
563:  गौतम बुद्ध का जन्म, 483 ईसा पूर्व में निर्वाण प्राप्त।
327-26: सिकंदर द्वारा भारत की खोज एवं यूरोप व भारत के मध्य भूमि मार्ग की शुरुआत।
269-232: भारत में अशोक का काल ।
261: कालिंग का युद्ध ।
57: विक्रम काल की शुरुआत।
30: दक्कन में सातवाह्न वंश की शुरुआत. तथा दक्षिण में पांडय का शासन।

ईसवी- 
78: सका काल की शुरुआत।
320: गुप्त काल की शुरुआत।
360: समुद्रगुप्त ने संपूर्ण उत्तर भारत तथा दक्कन के अधिकांश भाग को जीत लिया ।
380-413: चंद्रगुप्ता विक्रमादित्य का शासन, कालिदास का काल, तथा हिंदूवाद का पुनरूत्तान।
606-647: हर्षवर्धन का शासन।
629-645: ह्वेन सांग का भारत आगमन।
622: हिजरी काल की शुरुआत।
712: मुहम्म्द बिन क़ासिम द्वारा सिंध पर अरब का आक्रमण।
1025: महमूद द्वारा सोमनाथ मंदिर को लूटा गया।
1191:  पृथ्वीराज चौहान एवं मुहम्म्द गौरी के मध्य तराईन का प्रथम युद्ध।
1192: तराईन का द्वितीय युद्ध जिसमें पृथ्वीराज चौहान की मुहम्म्द गौरी द्वारा हार।
1206: कुतुब्बुद्दीन ऐबक द्वारा गुलाम वंश की स्थापना।
1329:  पहला भारतीय धरमप्रदेश की स्थापना पोप जॉन आइक्सीच के द्वारा हुई एवं जॉर्डानुस को प्रथम बिशप नियुक्त किया गया।
1459: सन सिटी, जोधपुर , भारत की स्थापना राव जोधा द्वारा की गयी।
1497:  वास्को डी गामा ने भारत यात्रा हेतु कूच किया।
1498: भारत के कालीकट पर वास्को डी गामा का आगमन।
1502: वॅस्को डी गामा की लिस्बन, पुर्तगाल से भारत के लिए दूसरी यात्रा की शुरुआत।
1565: तालिकोटा का युद्ध.  मुस्लिमों द्वारा विजयनगर सेना का ख़ात्मा।
1575:  मुगल बादशाह अकबर ने बंगाल सेना को तूक्रोई के युद्ध में हराया।
1597: डच ईस्ट इंडिया कंपनी  के जहाज़ सुदूर पूर्व की यात्रा पर निकले।
1602: युनाइटेड डच ईस्ट इंडियन कंपनी (वॉक) की स्थापना।
1608: प्रथम इंग्लिश रक्षा सेना का सूरत के तट पर आगमन।
1612: सूरत ,भारत में अँग्रेज़ों एवं पुर्तगालियों के मध्य युद्ध।
1621: डच वेस्ट इंडिया कंपनी को न्यू नेदरलॅंड्स का शासन प्राप्त ।
1633: मिंग  वंश का डच ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ युद्ध जिसमें मिंग वंश की विजय । 
1639:  स्थानीय नायक शासकों के लिए ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा चाँदी की भूमि का निर्माण ।
1641: युनाइटेड ईस्ट इंडियन कंपनी  द्वारा मलक्का शहर का जीता जाना ।
1641: वेस्ट इंडिया कंपनी द्वारा साओ पौलो दे लोअंडा को जीता गया ।
1658:  भारत में हार्बर शहर पर डच सेना का कब्जा ।
1668: बंबई पर इंग्लैंड का शासन ।
1668:  चार्ल्स द्वितीय द्वारा बंबई को इसाट इंडिया कंपनी को सौपां गया ।
1690: जॉब चारनॉक द्वारा कलकत्ता शहर की स्थापना ।
1739: करनाल का युद्ध ईरानी बादशाह नादिर शाह एवं पराजित मुगल बादशाह मुहम्म्द शाह के मध्य लड़ा गया ।
1739: नादिर शाह ने भारत के दिल्ली पर कब्जा किया ।
1752: त्रिचीनपल्ली में फ्रांससीसी सेना का अँग्रेज़ी सेना के समक्ष समर्पण ।
1756: भारतीय विद्रोहियों द्वारा ब्रिटिश सेना की पराजय ।
1756: फ्रांस एवं भारत युद्ध: किट्तंनिंग अभियान ।
1756: रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व मे भारत के फुल्ता पर ब्रिटिश सेना का कब्जा ।
1757: ब्रिटिश सेना का कलकत्ता पर कब्जा ।
1757: रोस्सबच में युद्ध की शुरुआत ।
1760: वणडेवाश का युद्ध. ब्रिटिश सेना द्वारा फ्रांस की हार ।
1761: पानीपत का युद्ध. अफ़ग़ान सेना द्वारा महाराणा प्रताप की पराजय ।
1786: चार्ल्स कॉर्नवॉलिस को भारत का गवर्नर-जनरल नियुक्त किया गया ।
1795: कुर्डला का युद्ध. महाराणा द्वारा मुगलों की हार ।
1798: इंग्लेंड व हैदराबाद के निजाम के मध्य संधि पर हस्ताक्षर ।
1803: आस्सेए का युद्ध. ब्रिटिश-भारतीय सेना द्वारा मराठा सेना की हार ।
1839: ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा आदान पर कब्जा ।
1846: बॅटल ऑफ अल्लवाल , ब्रिटिश सेना द्वारा पंजाब में सिक्खों की हार ।
1846: सोबराओन का युद्ध: ब्रिटिश सेना द्वारा सिक्खों की हार. यह भारत में प्रथम सिक्ख युद्ध था ।
1853: प्रथम यात्री रेल की भारत में शुरूआात यह ट्रेन बंबई से थाने की मध्य चलाई गयी ।
1866: इलाहाबाद उच्च न्यायालय की स्थापना ।
1892: दादाभाई नोरॉजी को ब्रिटेन की संसद के लिए प्रथम भारतीय सदस्य के रूप मे चुना गया ।
1905: बंगाल विभाजन ।
1914: प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत ।
1925: कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया की स्थापना ।
1929: प्रथम नौन-स्टॉप वायु यात्रा इंग्लैंड से भारत के मध्य शुरू ।
1932:  भारतीय वायु सेना की स्थापना । 
1936: उड़ीसा को ब्रिटिश भारत के प्रांत के रूप मे मान्यता ।
1939: नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा ऑल इंडिया फॉर्वर्ड ब्लॉक की स्थापना ।
1944: जेससामी, ईस्ट-इंडिया  की जापानी सेना द्वारा हार ।
1947: ब्रिटिश शासन से भारत की आज़ादी ।
1947: लॉर्ड माऊंटबेटन को भारत का अंतिम वायासाराय नियुक्त किया गया ।
1947: भारत पाकिस्तान के मध्य रेडकलिफ्फ रेखा की घोषणा ।
1948: लॉर्ड माऊंटबेटन का भारत के गवर्नर जनरल के पद से इस्तीफ़ा ।
1950: भारत एक गणतंत्र के रूप में स्थापित ।
1950: सिक्किम भारत का संरक्षित राज्य बना ।
1952: राज्य सभा की पहली बैठक ।
1956: दिल्ली को भारतीय संघ का क्षेत्र बनाया गया ।
1960: बंबई राज्य को महाराष्ट्र एवं गुजरात मे विभाजित किया गया ।
1971: ग़रबपुर का युद्ध:  भारतीय सेना द्वारा पाक सेना की हार ।
1974: एटम बम के प्रयोग में भारत विश्व का 6ठा राष्ट्र बना । 
1975: सोवियत संघ की सहायता से भारत ने 1स्ट्रीट सेटिलाइट का प्रक्षेपण किया ।
1980: रोहिणी 1, प्रथम भारतीय सेटिलाइट, का कक्षा में प्रक्षेपण ।
1994: भारतीय सुंदरी सुष्मिता सेन ने  43वाँ मिस यूनिवर्स का खिताब जीता ।
1994: ऐश्वर्या राय ने 44वाँ मिस वर्ल्ड का खिताब भारत के नाम किया ।
2008: भारत ने प्रथम अमानवीय चन्द्र मिशन चंद्रयान -1 का प्रक्षेपण किया ।